मीडिया के और भी हाथ पैर हैं
पचास, साठ, सत्तर के दशक में जन्मे लोगों को आज भी याद होगा कि उनके घरों में साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, रविवार, सरिता, मुक्ता, कादम्बनी, सारिका, दिनमान(बाद में दिनमान टाइम्स) , इलस्ट्रेटेड वीकली, संडे, ब्लिट्ज आदि ढेरों पत्रिकाएँ आया करती थीं और परिवार के हर किशोर/वयस्क उन पत्रिकाओं को पढ़ा करते थे और उनके कंटेंट्स पर घरों में विचार, विमर्श और कई कई बार धुँआधार बहसें भी हुआ करती थीं। बच्चे नंदन, पराग, बालहंस और चंदामामा की रोचक कहानियों के बारे में आपस में और बड़ों से भी खूब बतियाते थें। प्रेमचन्द, रेणु, यशपाल, दिनकर, मैथलीशरण गुप्र, जानकी बल्लभ शास्त्री, बच्चन, सुमित्रा नंदन पन्त, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद आदि नाम मध्यम और निम्न मध्यम वर्गीय घरों में भी खूब चर्चित थे तो उस वक्त थोड़ा ज्यादा पढ़े लिखे लोगों के बीच दुष्यंत कुमार, नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध, नामवर सिंह, राम विलास शर्मा आदि की भी चर्चा आम थी।
आखिर इस चर्चा का क्या औचित्य है अभी? औचित्य ये है कि इन नामों और इनके रचनाओं के जरिये जो उस समय के पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से आम जन को सुलभ हो पाते थे, लोगों के बीच मुद्दों पर बहस होती थी, राजनीति पर घरों में आपस में ही तीखी बहसें होती थी तो लोगों के बीच तात्कालिक मुद्दों की समझ भी विकसित होती थी और लोगों का मुद्दों के प्रति अपना एक नजरिया भी बनता था। अपने इस नजरिये की बदौलत लोग अपने आस पास की राजनीतिक गतिविधियों को भी प्रभावित करते थे। साहित्य और सम सामयिकी के बेजोड़ योग हुआ करती थीं ये पत्र पत्रिकाएँ। रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर गाड़ी का इंतज़ार करते बुक स्टॉल पर ही कई पत्रिकाओं को पढ़ जाना एक खास तरह का टाइम पास वेंचर हुआ करता था।
साहित्य -सम सामयिकी की इस महती भूमिका को आज की कोई भी मीडिया रिप्लेस या सुब्स्टीटूट नहीं कर पाई है और न ही पब्लिक डिस्कोर्स का वो माध्यम उपलब्ध करा पाई है। आज हम सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर जैसे शब्दावली गढ़ रहें हैं लेकिन उस दौर में पत्रिकाओं ने जिस तरह से लोगों को अपने मुद्दों से जोड़ा और उन मुद्दों पर अपनी राय बनाने में मदद किया आज के दौर की पीढ़ी को ये बात बताई जानी चाहिए। नब्बे और उसके बाद के दशक की पीढ़ी इन बातों से बहुत हद तक अनजान है और उसे लगता है कि टेलीविजन/सोशल मीडिया ही एक मात्र इंफ्लुएंसर हो सकती है लेकिन यदि उनको पत्रिकाओं की भूमिका की बात पता चले तो उनको समझ में आये कि मीडिया के और भी चेहरे हैं , और भी रूप हैं, और भी हाथ-पैर हैं। लेकिन ये बातें आज की मीडिया बताने से रही। इसे बताने के लिए परिवार और समाज के लीगों को ही श्रुति विधा अपनानी होगी।
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