इंसान होने की मौलिक अहर्ता
हम चाहे जँहा के भी हों, हमारी संस्कृति , हमारी राष्ट्रीयता चाहे जँहा की भी हो , यह याद रखें कि हमारा मूल्यांकन सबसे पहले एक इंसान के रूप में ही होता है और यह इसीलिए हो पाता है क्योंकि हम इंसान हीं हैं सबसे पहले। जब एक आदमी जन्म लेता है तो वह महज एक जीवविज्ञानी पिण्ड भर होता है, और थोड़े समय में उसमें मनोवैज्ञानिक लक्षण भी आ जाते हैं। तब तक वह आदमी न किसी संस्कृति का होता है और न हीं किसी राष्ट्रीयता का। लेकिन उसकी पहचान धीरे धीरे कायम होती है जो उसके इंसान होने की वजह से हीं होती है। उसे हम किसी एक देश-समाज-राज्य की पहचान देते हैं और उसके साथ ही उसे एक सांस्कृतिक पहचान भी देते हैं। महज जन्म का जगह बदल जाने भर से उसकी राष्ट्रीय और धार्मिक पहचान बदल जाती है लेकिन वह इंसान के रूप में अपनी बायोलॉजिकल पहचान बनाए रखता है। एक आदमी अपने जन्म की जगह से भी पहचान लिया जाता है लेकिन उसकी यह पहचान भी स्थाई नहीं होती है। लेकिन स्थाई रूप से इंसान के रूप में उसकी पहचान बनी रहती है। इंसानी पहचान ही हर मुल्क, हर संस्कृति, के हर आदमी की मौलिक और जन्मजात पहचान है। दरअसल बायोलॉजिकल पहचान इंसान की industructible और irrudicble पहचान है, बाकी सब इनहेरिटेड भर हैं। इस मौलिकता को इंसान होने के नाते कोई इंसान नकार सकता ही नहीं है और जो नकारता है वह इंसान होने की मौलिक और indestructible aur irreducible अहर्ता भी खो देता है। फिर जब इंसान ही नहीं रह गए तो कौन सी संस्कृति और कौन सा देश भला!
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