अखिल भारतीयता का अभाव

क्या आपको लगता है कि भारतीयों का कल्चरल इंटीग्रेशन हो पाया है आज तक? मुझे तो नहीं लगता है। मैं कभी दक्षिण में तो नहीं रहा हूँ, लेकिन उत्तर की शिक्षा, सिनेमा, साहित्य, कला, धार्मिक मान्यताओं और परम्पराओं , आदि में न सिर्फ दक्षिण, बल्कि सुदूर उत्तर(कश्मीर), पूरब (बंगाल और आसाम), और उत्तर पूर्व की जिस तरह अनदेखी की जाती रही है और उत्तर भारतीय हिंदी बेल्ट को ही भारतीय होने का बोध कराया जाता रहा है वह न सिर्फ आपत्तिजनक है बल्कि राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय पहचान को स्थापित करने की इक्षा के विपरीत भी है। कागज पर भारत का नक्शा खींच देने से, एक झंडे और एक राष्ट्रगान से, एक संविधान और एक राजनीतिक व्यवस्था से देश का बनना पूरा नहीं होता है, जब तक देश में "देसी"की भावना नहीं जगती है। लेकिन आजादी के बाद भारत जिस लोकतांत्रिक राजनीति को अपनाया उसे उत्तर भारतीय राजनीतिज्ञों ने दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश , राजस्थान, और कुछ हद तक गुजरात, महाराष्ट्र, और हिमाचल की राजनैतिक खेल  बनाकर रख दिया क्योंकि इन राज्यों में इतनी लोक सभा सीटें रख ली गई कि लोकतंत्र को सँख्यातन्त्र में आसानी से बदल दिया जा सके और ऐसा कर लिया गया, सो दिल्ली की सत्ता के लिए देश के रूप में शेष भाग अप्रासंगिक होते गए। इसी राष्ट्रीय संस्कृति के इंटीग्रेशन का अभाव रहा कि कालांतर में तरह तरह के अलगाववादी आंदोलन शुरू हुए। 
     और जब एक देश में इस क्षेत्रीय (हिंदी) राष्ट्रवादी चरित्र को धार्मिक पहचान दी जाने लगी , इन्हीं क्षेत्रों के सही गलत इतिहास को भारतीय उपमाद्विप का इतिहास बताया जाने लगा और इन्हीं की परम्पराओं को भारतीयता की पहचान बता दिया गया। भारत के भिन्न भिन्न क्षेत्रों की क्षेत्रीयता को न सिर्फ इतिहास में दबाया गया बल्कि साहित्य, कला, सिनेमा, मीडिया, विज्ञान, दर्शन, अर्थशात्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, और अन्य सभी विषयों में दबाया गया उससे यह जाहिर हो जाता है कि भारत को भारतीय बनाने में कोई अभिरुचि नहीं ली गई। नतीजा सब के सामने है। 
      और यह गलती सबसे पहले कांग्रेस ने शुरू की। उत्तर भारत के लगभग सभी राजनीतिज्ञों ने इस गलती में अपने सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया। आज भारतीय जनता पार्टी और उससे दो कदम आगे बढ़कर आम आदमी पार्टी भारत के इस क्षेत्रीय स्वरूप को आगे बढाने में कांग्रेस से ज्यादा ताकत से लगे हैं। लेकिन कोई पार्टी और जनता भी इस बात को नहीं समझ पा रही है कि देश का निर्माण सिर्फ राजनीति से नहीं होता है बल्कि देश बनने के लिए उसकी सभी विविधताओं का आपसी सामंजन, समन्वय और सम्मान राजनीति से पहले जरूरी होते हैं। देश को एक रखना है तो सभी देसी को मिलाकर चलिए, क्षेत्र, भाषा, परम्परा, संस्कृति, धर्म, शिक्षा, अर्थव्यवस्था आदि सभी में। वर्ना लोकल का मतलब उतर भारतीय ही होकर रह जायेगा। सत्ता दिल्ली में रहती तो जरूर लेकिन बस्ती है भारत के हर राज्य में।
   जय हिंद!

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