राजनीतिकरण और धार्मिकिकरण और उनके परिणाम
जनता का बिना लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रसार के राजनीतिकरण और बिना नैतिक उत्थान के धार्मिकिकरण ने भारत की दशा और दिशा दोनों को बर्बाद करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। 1966 में शास्त्री जी की अकाल मृत्यु के बाद भारतीय लोकतंत्र राजा रजवाड़ों के काल के दरबारी षड्यंत्र की शिकार हो गई। इंदिरा गाँधी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोंट दिया । श्रीमती गाँधी भले ही चतुर राजनीतिक खिलाड़ी मानी जाती हों लेकिन उनकी राजनीतिक चतुराई उनके पिता पंडित नेहरू के लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत पर थी। लोकलुभावन राजनीति ही उनके लोकतांत्रिक विचारों का प्रतिनिधित्व करती थी। उनकी हठधर्मिता ने भारतीय लोकतंत्र को जड़ों से हिला कर रख दिया। साथ ही सोवियत खेमे के साथ उनकी अत्यधिक नजदीकी ने भारत के सामने आए अति महत्वपूर्ण आर्थिक अवसरों को भी गवाने का मौका दे दिया। उनकी पॉपुलिस्ट राजनीति और अपनी सत्ता को हर कीमत पर बनाये रखने की जिद्द ने भारत को आर्थिक मोर्चे पर अन्य एशियाई देशों जैसे दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, जापान और चीन से पीछे कर दिया और दूसरी तरफ तमाम तरह के राजनीतिक समस्यायों को भी जन्म दिया, जिनमें पंजाब, मिजोरम और कश्मीर शामिल थे। उन्हीं की स्थापित परम्परा है कि आज भारत में एकाधिकारवादी राजनीति को दलील करने का अवसर दे रही है।
दूसरी तरफ सम्पूर्ण भारतीय राजनीतिक एलीट ने, नेहरू जी को छोड़कर राजनीतिक सत्ता के लिए जनता को गोलबंद करने के उद्देश्य से धर्म और जाति का घोषित रूप से खुल्लम खुल्ला उपयोग किया और इसके लिए जनता की राजनीति चेतना को धर्म और जाति के आधार पर तराशा। भारत की संविधानिक संस्थाएँ यथा निर्वाचन आयोग और उच्च और सर्वोच्च अदालतें भी इसी रंग में रंग कर राजनीतिक एलीट के साथ सहयोग करती रहीं। संविधान की खिल्ली उड़ाने में न तो राजनीति दल पीछे रहे और न अदालते रहीं।
इन सब के बीच 1947 में आजाद हुए देश की जनता आजादी का उद्देश्य, और स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों को भूलते चली गई या यूँ कहें कि उसे इन उद्देश्यों, मूल्यों और आदर्शों को भुलने की ट्रेनिंग 1966 से ही दी जाने लगी। जनता ने इस ट्रेनिंग को ग्रहण भी ठीक से किया और राजनीति से अपने लिए जरूरी सवालो जैसे रोजगार, आमदनी, शिक्षा, स्वास्थ्य, अन्य नागरिक सुविधावों के बदले नेताओं के भले और उनके परिवार के उत्थान के लिए काम किया। भारतीय लोकतंत्र में मात्र दो पक्ष ही लाभान्वित हुए, एक नेता और दूसरे अधिकारी और बड़े पूँजीपति और यह सब सम्भव बनाया जनता ने जिसे इसके लिए तैयार किया गया धार्मिक राजनीतिकरण की ट्रेनिंग देकर।
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