अपराध-दंड-सोशल कॉन्ट्रैक्ट

अपराध-दंड-सोशल कॉन्ट्रैक्ट

आदिकाल से ही व्यक्ति को अपराध के लिए समाज या उसकी मान्यताप्राप्त आधिकारिक संस्थाएँ दण्ड देती आ रहीं हैं। यदि अपराध और दंड के सम्बन्धों की व्यख्या की जाए तो स्पष्ट होता है कि हर अपराध के लिए दिया जाने वाला दंड एक प्रकार से बदला लेने की कार्रवाई जैसा होता है, जैसे हत्या या इसके जैसे कुछ अन्य जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा दी जाती है।  समाज दो तरह से दंड देता है, एक है सामाजिक स्तर पर जो व्यक्ति के सोशल कॉन्ट्रैक्ट को तोड़ने के लिए समाज अपनी ओर से देता है जिसके पीछे समाज की सोशल कॉन्ट्रैक्ट को स्वीकार करने की सामूहिक स्वीकृति की शक्ति होती है। और दूसरा है उस अपराध के लिए कानूनी दंड जिसके पीछे नियमों की शक्ति होती है। जब समाज के अपने सामाजिक दंड का भय खत्म हो जाने लगता है अर्थात जब समाज में व्यक्तियों के बीच, समूहों के बीच कार्यरत सोशल कॉन्ट्रैक्ट कमजोर होने लगता है तब कानून अपनी भय पैदा कर सकने वाली तमाम शक्तियों को गँवा देता है। कानून दंड तो दे देता है एक व्यक्ति विशेष को एक अपराध विशेष के लिए किन्तु समाज में बारम्बार होने वाले अपराध को और अपराध करने की प्रवृत्ति को कानून खत्म या कम नहीं कर पाता है। दरअसल अपराध कानून व्यवस्था का मसला तब बनता है जब उस अपराध को रोकने की सामाजिक सहमति में ह्रास होता है। आज हम देखते हैं कि अधिक से अधिक पैसा हो इसकी सामाजिक स्वीकृति तो है किंतु उस पैसे को कोई किस प्रकार हासिल कर रहा है इस सम्बंध में समाज अपनी स्वीकृति देने की शक्ति का उपयोग नहीं कर पाता है। इस कारण से आपराधिक ढंग से धनोपार्जन करने के बावजूद व्यक्ति समाज की स्वीकृति सिर्फ इसलिए पा जाता है कि उसके पास धन है। समाज धोपार्जन के आपराधिक विधि पर चुप रहकर एक प्रकार का मौन स्वीकृति प्रदान करता है। ऐसी स्थिति में किसी व्यक्ति विशेष को आपराधिक ढंग से धनोपार्जन के लिये कानून भले ही दंडित कर दे , वह इस प्रकार के अपराध को रोक नहीं पाता है। इसी प्रकार बलात्कार और अन्य जेंडर बायस के अपराधों को रोकने के लिए भी कानून हैं लेकिन समाज सारी नैतिकता का ठेका स्त्री  को सौप देता है जिसका नतीजा होता है कि लैंगिक और सेक्सुअल अपराध करने वाला पुरुष न तो खुद को अपराधी मानता है और न ही समाज उस पुरुष को अपराधी मानकर उससे या उसके किये कृत्य (अथवा कुकृत्य) से अपनी सामाजिक स्वीकृति वापस ले पाता है। तभी तो तमाम कानूनों की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि कार्यपालिका  न्यापालिका से दंडित व्यक्ति को भी अपराधमुक्त घोषित करती है तो कंही कोई न्याय की आधिकारिक संस्था का सदस्य  होकर भी यह कहने से संकोच नहीं करता है कि लड़की के कपड़े भड़काऊ थे। सो अगर सही में समाज में औपराध को न्यूनतम करना है(वाकई खत्म करना हो ) तो अपराध को पहले सामाजिक समस्या समझ कर  आपराधिक कृत्य वाले कार्य को प्राप्त  सोशल कॉन्ट्रैक्ट की स्वीकार्यता को समाप्त कर समाज के अंदर उस कृत्य के लिए कर्ता को सामाजिक रूप से दंड देने की परंपरा को शुरू करना होगा और तब कानून का दंडा चलाना होगा। बीना सामाजिक दंड के कानूनी दंड बदले की भावना से की गई करवाई से अधिक कुछ  नहीं  हो पायेगा और अपराध खत्म होने की बात कौन कहे कम भी नही हो पायेगा।

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